हमारे भारत ने विश्व को कई महान लेखक व कवि दिए हैं। कहने के लिए यह महान पदक सिर्फ कुछ कवियों को प्राप्त है और वो सिर्फ तीन हैं :-
- श्री मुंशी प्रेमचंद जी
- श्री मैथलीशरण गुप्त जी
- श्री राम धारिसिहं दिनकर जी
लेकिन यह ही महान कवि नहीं हैं इनके अलावा श्री हरिवंशराय बच्चन जी, श्री तुलसीदास जी, श्री रैदास जी, श्री कबीर जी, श्री रबिन्द्र नाथ ठाकुर जी, श्री सुर्यकांत त्रिपाठी (निराला) जी, इत्यादि जैसे महान कवि भी भारत की शान हैं।
श्री मुंशी प्रेमचंद जी
३१ जुलाई १८८० (1880) को बनारस के कबीर लमही गाँव में जन्मे धनपत राय ने उर्दू में गुलाब राय व हिन्दी में प्रेमचंद नाम से लेखन कार्य किया अतः प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है।
उर्दू में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह 'सोज़ेवतन' अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर लिया। आजीविका के लिए स्कूल मास्टरी, इंस्पेक्टरी, मैनेजरी करने के अलावा इन्होंने 'हंस', 'माधुरी' जैसी प्रमुख पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
कुछ समय इन्होंने बंबई की फ़िल्म नगरी में भी बिताया लेकिन वह उन्हें रास नहीं आई। यद्यपि उनकी कई कृतियों पर यादगार फ़िल्में बनीं।
आम आदमी के दुःख-दर्द के बेजोड़ चितेरे प्रेमचंद को उनके जीवन काल में ही कथा सम्राट कहा जाने लगा था। उन्होंने हिंदी कथा लेखन की परिपाटी पूरी तरह बदल डाली थी। अपनी रचनाओं में उन्होंने उन लोगों को प्रमुख पात्र बनाकर साहित्य में जगह दी जिन्हें जीवन और जगत में केवल प्रताड़ना और लांछन ही मिले थे।
उनकी जीवनसाथी श्रीमती शिवरानी देवी जी थीं और उनके तीन बच्चे थे; अमृत राय, श्रीपत राय, कमला देवी जी थे। ८ अक्तूबर १९३६, वाराणसी में उनका देहवसान हुआ। लेकिन श्री प्रेमचंद जी ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सब मानसरोवर शीर्षक से आठ खण्डों में संकलित हैं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं-- गोदान, गबन, प्रेमाश्रम,सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, रंगभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा और मंगलसूत्र, इत्यादि।
उनकी जीवनसाथी श्रीमती शिवरानी देवी जी थीं और उनके तीन बच्चे थे; अमृत राय, श्रीपत राय, कमला देवी जी थे। ८ अक्तूबर १९३६, वाराणसी में उनका देहवसान हुआ। लेकिन श्री प्रेमचंद जी ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सब मानसरोवर शीर्षक से आठ खण्डों में संकलित हैं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं-- गोदान, गबन, प्रेमाश्रम,सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, रंगभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा और मंगलसूत्र, इत्यादि।
श्री मैथलीशरण गुप्त जी
हिन्दी साहित्य के प्रखर नक्षत्र, माँ भारती के वरद पुत्र मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त सन १८८६ ई. में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रुप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। माता और पिता दोनों ही परम वैष्णव थे। वे "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दी, बंगला,संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग' तथा वाद में "जयद्रथ वध' प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ "स्वप्नवासवदत्ता" का अनुवाद प्रकाशित कराया। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य "साकेत' का लेखन प्रारम्भ किया। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। साकेत तथा अन्य ग्रन्थ पंचवटी आदि सन् १९३१ में पूर्ण किये। इसी समय वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। 'यशोधरा' सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान की। सन् १९४१ ई. में व्यक्तिगत सत्याग्रह के अंतर्गत जेल गये। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्म विभूषण' से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में "अभिनन्दन ग्रन्थ' भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।
इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता श्री गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। १२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। "भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। डॉ नगेन्द्र के अनुसार वेराष्ट्रकवि थे, सच्चे राष्ट्रकवि। दिनकर जी के अनुसार उनके काव्य के भीतर भारत की प्राचीन संस्कृति एक बार फिर तरुणावस्था को प्राप्त हुई थी। उनकी लिखी सर्व समृध पुस्तकों में से कुछ हैं -यशोघरा, पंचवटी, आदि।
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